उधमसिंह नगर

13 साल का संघर्ष: एएलपी मज़दूरों की फिर जीत; सुप्रीम कोर्ट से प्रबंधन की पुनर्विचार याचिका भी खारिज

नरेन्द्र राठौर 

रुद्रपुर (उत्तराखंड)। गैरक़ानूनी तालाबंदी मामले में देश के सर्वोच्च अदालत से एएलपी ओवरसीज की पुनर्विचार याचिका भी खारिज हो गई। मज़दूर फिर जीते। इससे पूर्व अदालत ने बीते 6 मई को मजदूरों के हक में फैसला सुनते हुए उच्च न्यायालय, नैनीताल के आदेश पर मुहर लगा दी थी।

 

उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ कि पीठ ने 9 नवंबर 2022 के अपने आदेश में लिखा कि प्रबंधन ने जिस आदेश की समीक्षा की मांग की है, उसकी आवश्यकता नहीं है। वह किसी भी स्पष्ट त्रुटि से पीड़ित नहीं हैं जो इसके पुनर्विचार की गारंटी देता है। तदनुसार, समीक्षा याचिका खारिज की जाती है।

13 साल लंबे संघर्ष के बाद एएलपी ओवरसीज प्राइवेट लिमिटेड रुद्रपुर के मज़दूरों को सुप्रीम कोर्ट से दोबारा बड़ी कामयाबी मिली है। मज़दूर वर्ष 2009 से 101 श्रमिकों की गैरक़ानूनी तालाबंदी व बर्खास्तगी की लड़ाई लड़ रहे हैं।

ट्रिब्यूनल से यूनियन हार गई थी। फिर हाईकोर्ट से जीती। जिसके खिलाफ प्रबंधन सुप्रीम कोर्ट गया था, जहाँ से प्रबंधन की एसएलपी खारिज हो गई। अब उसकी पुनर्विचार याचिका भी खारिज हो गई।

साढ़े तेरह साल से जारी संघर्ष

1985 से मारुति के लिए रबर जेन बनने वाली एएलपी ओवरसीज प्रबंधन ने 17 जुलाई 2009 को एक साजिश के तहत मज़दूरों की गैरकानूनी गेट बंदी कर दी थी। इसी संघर्ष के दौरान यूनियन के तत्कालीन पदाधिकारियों ने प्रबंधन से मिलकर धोखाधड़ी की थी।

नेताओं ने यूनियन को खत्म करने का आवेदन तक कर दिया था। मज़दूरों ने गद्दार नेताओं को हटाकर नए पदाधिकारियों को चुनकर संघर्ष का ऐलान किया था।

तबसे मजदूरों का जमीनी व क़ानूनी संघर्ष जारी है। इस दौरान सहायक श्रम आयुक्त ऊधम सिंह नगर की वार्ता में कोई समाधन न निकलने के बाद 25 मार्च 2010 को यह विवाद औद्योगिक न्यायाधिकरण हल्द्वानी के लिए संदर्भित हो गया।

न्यायाधिकरण ने वादबिन्दु से उलट मामले में दिया था फैसला

औद्योगिक न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी ने मालिक के हित में गैरकानूनी रूप से पूरे मामले को ही पलट कर शासन द्वारा प्रेषित वाद बिन्दु को पलटकर मालिक के हित में वाद बिन्दु बनाकर फर्जी तथ्यों से दिनांक 14/07/2014 को मजदूरों के विरुद्ध फैसला सुना दिया था।

संदर्भादेश इस बिंदु पर था कि “क्या सेवायोजक द्वारा संलग्न सूची में अंकित 101 श्रमिकों को दिनांक 17/07/2009 से कार्य पर न लिया जाना उचित/वैधानिक है? यदि नहीं तो संलग्न सूची में अंकित श्रमिक किन-किन विवरण सहित हितलाभ/क्षतिपूर्ति पाने के अधिकारी हैं।”

कोर्ट ने बड़े ही साजिशाना तरीके से मनमाना मूल बिंदु बनाया कि “क्या सेवायोजक द्वारा की गई घरेलू जांच की प्रकृति न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप वैधानिक तरीके से की गई है, यदि नहीं तो उसका प्रभाव।” और “क्या संदर्भादेश विधि विरुद्ध है।” और मूल संदर्भादेश को अतिरिक्त बिंदु बना दिया।

हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के आदेश को पलट दिया

इसके खिलाफ यूनियन उच्च न्यायालय नैनीताल में चुनौती दी और कहा कि जो संदर्भादेश शासन द्वारा न्यायाधिकरण को भेजा गया है उसकी जगह दूसरा वाद बिंदु बनाकर वह फैसला कैसे दे सकती है? यह न्यायाधिकरण के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर है।

पूरी सुनवाई और बहस के बाद माननीय उच्च न्यायालय के जस्टिस मनोज तिवारी की एकल पीठ ने ने मई 2018 में मजदूरों के हक में फैसला दिया और यह स्पष्ट किया कि न्यायाधिकरण को मूल वाद बिंदु को हटाकर दूसरे वाद बिंदु पर फैसला देने का कोई अधिकार नहीं है। और कहा कि न्यायाधिकरण ने वाद के मूल मुद्दे से भटकाया है।

पीठ ने मामले को न्यायाधिकरण के पास पुनः भेज कर इसे महज ‘कार्य पर न लिये जाने’ और मिलने वाले लाभहित के बिन्दु पर तत्काल निस्तारित करने का आदेश दिया था।

प्रबंधन सर्वोच्च अदालत से भी हारा

प्रबंधन इसके खिलाफ सर्वोच्च अदालत में चला गया। पूरी सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय की पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को सही बताते हुए प्रबंधन की एसएलपी को खारिज कर दिया।

सर्वोच्च अदालत में न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ कि पीठ ने 6 मई को मजदूरों के हक में फैसला सुनते हुए उच्च न्यायालय, नैनीताल के आदेश पर मुहर लगा दी।

सर्वोच्च अदालत से प्रबंधन की पुनर्विचार याचिका भी खारिज

प्रबंधन दोबारा सर्वोच्च अदालत गया और उसने पुनर्विचार याचिका लगाई। जहाँ पुनरीक्षण याचिका को न्यायालय में सूचीबद्ध करने का आवेदन खारिज हो गया।

अदालत ने कहा कि हमने समीक्षा याचिका और दाखिल किए गए संबंधित कागजातों को देखा है। हम आश्वस्त हैं कि जिस आदेश की समीक्षा की मांग की गई है, वह सही नहीं है। ऐसे किसी भी स्पष्ट त्रुटि से पीड़ित नहीं हैं जो इसके पुनर्विचार की गारंटी देता है। तदनुसार, समीक्षा याचिका खारिज की जाती है।

अब औद्योगिक न्यायाधिकरण को उस मूल बिंदु पर अपना आदेश पारित करना है। निश्चित रूप से मजदूरों की इसमें भी जीत होगी।

इस पूरे मामले में उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री राजेश त्यागी ने जोरदार पैरवी की। उन्होंने श्रमिक हित में उच्च न्यायालय, नैनीताल में भी पैरवी में उच्च न्यायालय के अधिवक्ता योगेश पचौलिया के साथ अपनी अहम भूमिका निभाई और अंततः मजदूरों को जीत मिली है।

मज़दूरों के धैर्य व संघर्ष की जीत -यूनियन

आनंद निशिकावा कंपनी इम्प्लाइज यूनियन के अध्यक्ष शंभू शर्मा ने कहा कि विकट स्थितियों के बावजूद मज़दूरों के लगातार एकजुट संघर्ष, सहयोगी संगठन के कुशल निर्देशन और अधिवक्ताओं की शानदार पैरवी से ही लगातार जीत मिली है।

महामंत्री नरेश सक्सेना ने कहा कि पिछले 13 साल से हम मज़दूर दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। इन सालों में सारे मज़दूरों की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय हो चुकी है। लेकिन हमने न्याय मिलने तक लड़ने का संकल्प लिया है।

यूनियन नेता अमरीक सिंह ने कहा कि लगातार जीत मिलने के बावजूद प्रबंधन की मनमानी जारी है। प्रबंधन गैरकानूनी रूप से मशीनें भी राज्य से दूसरे राज्य शिफ्ट करती रही। इस बीच राज्य में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन मज़दूरों की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं हुई।

कोषाध्यक्ष गंगा सिंह ने कहा कि श्रम विभाग में कई बार आपत्तियां दर्ज कराने के बावजूद श्रम अधिकारी प्रबंधन की गैर कानूनी कार्यवाही पर कोई रोक भी नहीं लगा रहे हैं। इसके बावजूद हमारा संघर्ष सवेतन कार्यबहाली तक जारी रहेगा।

एएलपी मज़दूरों की लगातार व महत्वपूर्ण जीत पर मज़दूर सहयोग केंद्र (एमएसके) ने सभी संघर्षशील मज़दूरों को बधाई दी है और उनके संघर्ष को सलाम पेश किया है।

एमएसके ने कहा कि आज के मज़दूर विरोधी इस कठिन दौर में, मालिकों के तिकड़म, ट्रिब्यूनल से हार, कई मज़दूरों द्वारा बीच में ही साथ छोड़ देने के बावजूद 13 साल से जिस जज्बे के साथ मज़दूर हक़ का संघर्ष कर रहे हैं वह सीखने लायक है।

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