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उधमसिंह नगर

रुद्रपुर के एतिहासिक अटरिया मंदिर का इतिहास।आस्था का अटूट विश्वास,सभी भक्तों की मनोकामना होती है पूरी।पांच अप्रैल से शुरू हो रहा माता के दरबार में मेला।

नरेन्द्र राठौर(खबर धमाका)। ऐसा पूर्वजो तरा ज्ञात है, कि अटरिया मन्दिर का इतिहास 200 ई. वी. पूर्व का है, मुग्लों के शासन काल में इरा मन्दिर को क्षति अन्त कर इसकी मूर्तिया कुरें में ढाल दी गई थी जो कि 1600 ई. वी. में राजा रुद्रप्रताप सिंहजी यहो जंगल में जब शिकार के लिए आये तब उनका रथ का पहिया मन्दिर प्रागण के बाहर रुद्र स्थल के नीचे विश्राम करने के लिए निचे रुके तो रथ का पहिया धस गया मजबूरी क्स उन्हें रात्रि विश्राम करना पड़ा रात्रि में माँ अटारिया के गन्हें स्वप्न दिया कि राजन तेरे रथ का पहिया तब निकलेगा जब तू यहाँ तेरे रथ का पहिया धसा हुआ है, वहा एक दुध का कुशी है, उस कुएँ में मैं काफी समय से विराजमान हूँ तुइस कुएंकी खुलवा और मुर्तियों की स्थापना कसकर मन्दिर बनवा मैं इस मन्दिर और इस मन्दिर के साथ कुद्ध एकड़ भूमि उत्तर दिशा से अति हुए एक ब्रहाम्ण दिखाई देगा जिसे ये मन्दिर व भूमि दान में दे देना और उस ब्रहाम्ण से यह कहना कि हर साल चैत्र की अष्टमी के दिन अपने घर से मुझे बहू की तरह ढोली में लाक इस मन्दिर में मेरी पुजा अर्चना करेगा और जो भुमि है। इसमें मेरा मेला लगायेगा, और में सभी की मनोकामना पूर्ण करूंगी राजा ने अलमोड़ा के पाण्डे प्लाला के पण्डित सीताराम के दादा का मन्दिर का पुरोहित नियुक्त किया और पण्डित जी को दान स्वरूप कुहू गाँव और मन्दिर के आस-पास की 1200 बीघा भूमि भी प्रदान की, उस काल अटरिया का क्षेत्रफल 1200 बीघा ही या ब्रिटिश सरकार की बन्दोबस्ती नक्शा 1866-87 पण्डित सीताराम के तीन पुत्र हुये नौनी राम. पिसराम और नेकराम, पण्डित नौनीराम के दो पुत्र हुये, रंगद‌लाल और लक्ष्मीचन्द्र, अंगदलाल नै शादि की जिससे उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नही हुई उन्होंने नागवाँ बहेड़ी जिला बरेली की कोकिला कुबेर से शादी की कोकिला कुबेर मात्र 13 वर्ष की आयु में ही विधावा हो गयी इस प्रकार किसन्तान कोकिला कुबेर 1920 के आस-पास मन्दिर की पुजारिन महन्त बन गई 1987 में कोकिला कुबर का स्र्गवास हो गया निसन्तान कोकिला कुबेर ने अपने बड़े भाई झम्मन लाल के पुत्र भोला नाथ को गोद लेलिया मन्दिर की खुदाई में छोटी-बड़ी तो व कुद्ध सही 18 मुर्तिया प्राप्त हुई थी / एक बड़ी प्रतिमा आज भी कुऐं में दबी बताई जाती है। अब चूंकि मन्दिर बतच्‌का हैं। अतः उक्त विशाल प्रतिमा का बाहर निकाला सम्भव नहीं है / 1987 पुरातल विभाग की एक टीम मुर्तियां का सर्वक्ष ग करने आईं टीम सभी प्रतिमाए को मध्य काल और आधुनिक काल की बताई, 27 जनवरी 1984 को कोकिला कुबर ने सभी प्रतिभाएं पुरातला विभाग नैनीताल से पूराबशेष तथा बहुमूल्य कालाकृति नियम 1673 के नियम 12 के अधीन राजस्ट्रीकरण अधिकरण से प्रमाग प्रन्त्र प्राप्त किया/कोकिला कुबेर रुद्रपुर नगर निगम पालिका कीचेयमैन भी रही ऐसी मान्यता है कि मन्दिर में काला शेर माता को नमन करने आता था और उस मन्दिर की परिक्रमा करता था और एक नाग का जोड़ा जो कि आज भी मेले के समय मन्दिर में माता को नमन करने आता है, जिसको हरसाल महन्त परिवार ने देखा है माता

 

कोकिलाकुवंर को एक अवत्रति सन्नियासनी भी कहा जाता है मन्दिर में पूर्व काल से मेले में तेरस, चौदस, पुर्णमासी का रया मन्दिर का इतिहास विशेष महत्व होता है जहां पूरे देश से श्रदालु लाखों की संख्या में दर्शन करने आते है, यहां निसन्तान माँ-बहनों की मनोकामना

पूर्ण होती है, जिससे हर साल मेले में काफी संख्या में मन्दिर प्रकारण में मुण्डन संस्कार कराये जाते है! जिसके विशेष महत्व है। पूर्व कालों में भारत के कोने-कोने में, विशेषकर उत्तरी भारत में भारत में पूर्वकाल से त्रिलोकेश्वर शिव और आधीशक्त्ति की महालक्ष्मी बताया गया है। वह सम्पूर्ण ईश्वरों की अधीश्वरी है। लक्ष्य रूप में सम्पूर्ण विश उनका है। और अगल रूप और महासरस्वती की भी बताया गया है। महाशक्ति को विभिन्न नामेोस पुकारा जाता है। जैसे कात्यानी चडिंका, अम्बा, कपालीनी, चमुण्डा, गोरो वैष्णवी, काली, उमा, हिन्नमस्ता, भवानी, सुन्दरी दुर्गा कमला आदि/इनसे भी कही अधिक नामों से उत्तरी भारत तें देनी की पूजा-आराधना होती है, जैसे-नदां पार्वती रेणुका, बेणुका शाकुम्बरी ज्वाल्पा, अटरिया, पूर्णागिरी, माता सुन्दरी, ज्वाला, वैष्णोदेवी, सरस्वती, महाकाली आदि /स्थन विशेष के नामों ने भी अधीश्वरी जगत जननी महादेवी की पूजा उसी भक्तिभव से होती है। जैसे उपरोक्त वर्णित नामों वाले। देवीका / जब उपासना करो, कोई फर्क नही पड़ता है। दरअसल इस त्रिपुरीकृत दृश्य‌मान जगत में जब आधी शक्ति क्रिया रूप में प्रकट होती है, तो रूप तमोगुणप्रधान महाकाली होती है इच्द्धारुप में प्रकट होती है उसका रुप सतोगुणी प्रधान महासरस्वती होती है। नवरात्री (असोज मास) में यह रूप तपोगुणे प्रधान महाकाली होता है दीपावली में रजोगुण प्रधान महालक्ष्मी और चैत्रमास के सतोगुण प्रधान सरस्वती मार्कण्डेय पुराण में ही एक उान्य जगह मो भगवती दुर्गा की पूजा वर्ष में चार बार किये जाने का उल्लेख है / पहली पुजा चैत्र शुक्ल पक्ष की पहली तिथि से नोंबी तिथि तक माँ महाकाली के रूप में / द्वितीय आषाढ़ शक्य पक्ष पहली तिथि से नौबी तक महालक्ष्मी के रूप में/ तृतीय अश्विनी शक्ल पक्ष की पहली तिथि से नौनी तिथि तक महादुर्गा के रुप में / चतुर्थ, माघ शुक्ल पक्ष की पहली तिथि से नौबी तिथि तक माँ सरस्वती के रूप में पूजा अर्चना की जाती है / बंगाल में माँ भगवती की पूजा अर्चना महिषासूर मर्दिनी के रूप में की जाती है। दक्षिण भारत में मरियम्मा व एलम्सा की। आराधाना में पशुबलि का विधान है। राजस्थान में माँ गौरी के रूप में पूजा का विधान है। वही बौद्ध धर्म के लोग दरा भुजाओं वालों महाशक्ति की पुजा करते है। भारत के अलावा तिब्बत में शक्ति की प्रतीक देवी काली माँ के रूप में तथा जापान माँ धनाष्टि के रुप में माना जाता है। इस प्रकार का यह स्पष्ट हो जाता है कि चैत्रशुक्ल पक्ष में पूजे जने के कारण देवी अटरिया का स्वरूप महाकाली का है, न कि अम्बिा, उमा उषा व गौरी आदि वैष्णवी रूप/यही कारण रहा कि कालान्तर में इस स्थान पर पशुबलि होती रहीं। बाद में यहाँ प्रथा बन्द करा दी गई/जिस कारण कुछ लोग अटरिया को वैष्णवी रुपा करने लग गए / एक जनधुति के अनुसार सत्रहवी सदी के प्रारम्भ में देवी के मन्दिर में दूर दराज क्षेत्रा से भक्तों का देवी दर्शन हेतु चैत्रमास के नवरात्र में एकत्रित होना प्रारम्भ हुआ कालान्तर में दर्शनार्थियों की इस मीड़ में मेले का रूप धारण कर लिया / मान्यता है कि इन दिनों देवी अटरिया माता के दर्शन मात्र से अनंत फल प्राप्त करता है / भक्त अपनी उत्सर्ग-भावना से कही अधिक फल प्राप्त करता है। पुत्रेच्छा रखने वाली स्त्रिया इस अवसर पर विशेष से देवी दर्शनार्थ आती है। बातमीत के दौरान कुद्ध प्रराने लोगों मैं बताया कि प्रारम्भ में इस मन्दिर में पशुबलि का चढ़ावा चढ़ता था। इस बात से प्रतीत होता है। कि देवी का प्रारम्भिक स्वरूप तमोगुण प्रधान महाकाली का था / विपरीत इसके कुछ लोग बताते है। कि वलि देने का स्वरुप यह नथा/जनवरी का सिर कलम नहीं किया जाता था। वरन प्रतीक स्वरूप शरीर से किंचित मांसका कतरा और उस स्थान से टपके खून से देवी की मूर्ति का तिलक किया जाता था / भोलानाथ पण्डित जीने श्री मन्दिर पर किसी भी प्रकार की किचित मांस का धतरा या इसके टपके सन माँ पर चढ़ाने की पूर्ण विराम लगा दिया था अब जानवर पर तिलक लगाकर माँ के आगे नमन कराकर छोड़ दिये जाते है। चैत्र नवरात्र के अष्टमी के दिन महन्त दिवस निवास स्थान से जो कि अब नर्तमान में महन्त माता एष्पा देवी ने जिस घर से माँ का ढोला वहाँ पर मौका भव्य मंदिर बनाकर माँ को विराजमान किया जो कि अब रम्पुरा से अटरिया मन्दिर नाम से प्रसिद्ध है / गाजे बाजों के साथ डोली में बैठाकर अटरिया मन्दिर जगतपुरा में लाया जाता है और शुभ तिथि अनुसार मोडोली पूनः रम्पुरा अटरिया मन्दिर को प्रस्थान किया जाता है। और मेला समाप्त हो जाता है / जहां देश के अलग-अलग प्रानातों से लाखों करोड़ों की संख्या में भक्तगण दर्शन करके अपने आप को पाप मुक्त समझाते है । उप नमन मुण्डन, हवन, पूजा, अर्चगंगा देवी पाठ मोति आदि आदि तरह से माँ को मानते हैं। मंदिर और मेले के साथ एक दुःखद पहलू भी जुड़ा हुआ है। मन्दिर और मेले के मास से जो जमीन दानस्वरुप दी गयी थी / उसका काफी हिस्सा सरकार ने 1992 में पेननगर विश्वविद्यालय का हस्तान्तरित कर दिया और कुछ भूमि सरकार ने हारजनों दे दी आज मंदिर के पास सीमीत भूमि होने के कारण मेले का आकर्षक पहले की भांति नहीं रहा। मन्हत माता कोकिला कुबेर के ब्रम्हलीन होने के पश्चात् भोलानाथ पाणिन जीने मन्हत पद पर रहते हुये मो अटरिया व भक्तों की सेवा कि जो की 26 अप्रैल 2007 को बम्हलीन हो गये वर्तमान में महन्त माता पुष्पा देती अटरिया मन्दिर की महन्त है, जो कि कमेटी के प्रमुख पदों पर रहते हुये । ३० वर्षशे महत पद पर रहते हूये मन्दिर व आने जाने जाली भक्तों की सेवा करती आ रही है / अटरिया देनी वैध्यारो धर्म सभा आप सभी अटरिया मन्दिर में आने वाले भक्तों का हमेशा ही हार्दिक अभिनन्दन नयाँ अटरिया से मांगी गयी हर मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना करती है। और समय समय माँ के चरणों में जागरण भण्डारें पाठ जाप कथा का आयोजन भिन्न-भिन्न समय पर कराती रहती है। हमारा प्रयास मन्दिर में आने वाले भक्तों की सुख सुविधायें प्रदान कराने की सदा सदा ही तत्पर है आगे भी हमारा प्रयास अच्छे से अच्छा प्रदान करने का रहेगा का रहेगा

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